मेरी रचनाएँ: मेरे गीत और मेरे चित्र
अभियुक्ति: नवगीत पाठशाला : में मेरी रचनाएँ
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Tuesday, June 27, 2023
(ग्राम-जीवन का एक रेखा-चित्र): जगमग नगरों से दूर दूर.....
जगमग नगरों से दूर दूर
हैं जहाँ न ऊँचे खड़े महल,
टूटे-फूटे कुछ कच्चे घर
दिखते खेतों में चलते हल;
पुरई पाली, खपरैलों में
रहिमा रमुआ के नावों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
नित फटे चीथड़े पहने जो
हड्डी-पसली के पुतलों में,
असली भारत है दिखलाता
नर-कंकालों की शकलों में;
पैरों की फटी बिवाई में,
अन्तस के गहरे घावों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में!
दिन-रात सदा पिसते रहते
कृषकों में औ' मजदूरों में,
जिनको न नसीब नमक-रोटी
जीते रहते उन शूरों में;
भूखे ही जो हैं सो रहते
विधना के निठुर नियावों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में!
उन रात-रात भर, दिन-दिन भर
खेतों में चलते दोलों में,
दुपहर की चना-चबेनी में
बिरहा के सूखे बोलों में;
फिर भी, ओठों पर हँसी लिये
मस्ती के मधुर भुलावों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गांवों में !
अपनी उन रूप कुमारी में
जिनके नित रूखे रहें केश,
अपने उन राजकुमारों में
जिनके चिथड़ों से सजे वेश;
अंजन को तेल नहीं घर में
कोरी आँखों के हावों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में!
उस एक कुएँ के पनघट पर
जिसका टूटा है अर्ध भाग,
सब सँभल-सँभल कर जल भरते
गिर जाय न कोई कहीं भाग;
है जहाँ गड़ारी जुड़ न सकी
युग-युग के द्रव्य अभावों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में!
है जिनके पास एक धोती
है वही दरी, उनकी चादर,
जिससे वह लाज सँभाल सदा
निकला करती घर से बाहर,
पुर-वधुत्रों का क्या हो श्रृंगार?
जो बिका रईसों-रावों में !
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में!
सोने-चांदी का नाम न लो
पीतल - काँसे के कड़े-छड़े।
मिल जायँ बहूरानी को तो
समझो उनके सौभाग्य बड़े !
रांगे की काली बिछियों में
पति के सुहाग के भावों में।
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
ऋण-भार चढ़ा जिनके सिर पर
बढ़ता ही जाता सूद-ब्याज,
घर लाने के पहले कर से
छिन जाता है जिनका अनाज;
उन टूटे दिल की साधों में
उन टूटे हुए हियाओं में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
खुरपी ले ले छीलते घास
भरते कोछों की कोरों में,
लकड़ी का बोझ लदा सिर पर
जो कसा मूँज की डोरों में;
उनका अर्जन व्यापार यही
क्या करें ग़रीब उपायों में ?
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
आजीवन श्रम करते रहना,
मुँह से न किंतु कुछ भी कहना,
नित विपदा पर विपदा सहना
मन की मन में साधें ढहना;
ये आहें वे, ये आँसू वे
जो लिखे न कहीं किताबों में;
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में!
रामायण के दो-चार ग्रन्थ
जिनके ग्रन्थालय ज्ञान-धाम,
पढ़-सुन लेते जो कभी कभी
हो भक्ति-भाव-वश रामनाम;
जगगति युगगति जिनको न ज्ञात
उन अपढ़ अनारी भावों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
चूती जिनकी खपरैल सदा
वर्षा की मूसलधारों में,
ढह जाती है कच्ची दिवार
पुरवाई की बौछारों में;
उन ठिठुर रहे, उन सिकुड़ रहे
थरथर हाथों में पाँवों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गांवों में!
जो जनम आसरे औरों के
युग-युग आश्रित जिनकी सीढ़ी,
जिनकी न कभी अपनी ज़मीन
मर-मिट जाये पीढ़ी-पीढ़ी;
मज़दूर सदा दो पैसे के
मालिक के चतुर दुरावों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
दो कौर न मुँह में अन्न पड़े
तब भूल जायँ सारी तानें,
कवि पहचानेंगे रूप-परी
नर-कंकालों को क्या जाने ?
कल्पना सहम जाती उनकी
जाते इन ठौर कुठाँवों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में!
हड्डी - हड्डी पसली - पसली
निकली है जिनकी एक-एक,
पढ़ लो मानव, किस दानव ने
ये नर-हत्या के लिखे लेख !
पी गया रक्त, खा गया मांस
रे कौन स्वार्थ के दाँवों में !
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
आँखें भीतर जा रहीं धंसी
किस रौरव का बन रहीं कूप ?
लग गया पेट जा पीठी से
मानव ? हड्डी का खड़ा स्तूप !
क्यों जला न देते मरघट पर
शव रखा द्वार किन भावों में ?
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
जो एक प्रहर ही खा करके
देते हैं काट दीर्घ जीवन,
जीवन भर फटी लँगोटी ही
जिनका पीतांबर दिव्य वसन;
उन विश्व-भरण पोषणकर्ता
नर-नारायण के चावों में,
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
सेगाँव बनें सब गाँव आज
हममें से मोहन बने एक,
उजड़ा वृन्दावन बस जावे
फिर सुख की वंशी बजे नेक;
गूंजें स्वतंत्रता की तानें
गंगा के मधुर बहावों में।
है अपना हिन्दुस्तान कहाँ ?
वह बसा हमारे गाँवों में !
By Shri Sohan Lal Dwivedi
Wednesday, January 18, 2023
याद आता है : कश्मीर
लो फिर याद आगया कश्मीर!!
भारत का सिरमौर कश्मीर।
मुकुट सुनहरा सुंदर कश्मीर !
केसर की खुशबू से नहाता,
सूर्य किरणों का तिलक लगाता,
कश्मीर फिर फिर याद आता!!
वे नद नदी, वे वादियां,
अनछुई पर्वत श्रेणियां।
स्फटिक सी चमकती झीलें,
घुमावदार वे घाटियाँ!
स्वर्ग का सा सूंदर कश्मीर!
लो फिर याद गया कश्मीर !!
ऊँचे पर्वत का वह कन्दर,
शंकराचार्य जी का मंदिर !
तुषाराच्छादित उत्तुंग शिखर,
योगतल्लीन हों धरणीधर।
स्वर्ग का सा सुंदर कश्मीर
लो फिर याद आगया कश्मीर !!
देवदार,पाम, चीड़, विलोर,
सुर्ख चिनार करते विभोर !
डल, नगीन में तिरतीं फिरतीं।
नौकाएं अठखेलियां करतीं
सेब जैसे गालों वाली,
बालाएँ थीं खिलखिलातीं ।
स्वर्ग का सा सुंदर कश्मीर
लो फिर याद आगया कश्मीर!!
हब्बाखातून कवित्रि के
मीठे गीतों की माला से।
वादियां हरदम गूंजा करतीं,
मधुर स्वरों की बाला से।
स्वर्ग सा सूंदर कश्मीर
लो फिर याद आगया कश्मीर!!
नैसर्गिक सुंदरी गुरेज़ !
स्वर्ग से करती बतियाँ !
खरदुंगला सर्वोच्च सड़क से ,
दुनिया की दिखती झांकियां।
फिर वह ऐसी हवा चली!
आँखों से झरणी झरी !
जहरीला फ़न उठाए नागिन,
आग लगाती गली गली !
दुष्टों ने घर घर जाकर,
लगाई इज़्ज़त की बोली
मारधाड़, व्यभिचारी राक्षस
खेली ख़ून की होली!
जो बचे- यहाँ तहाँ बिखर गए ।
पुरखों की ज़मीं छूटी!
अपने ही मित्रों ने ही तो
अपनों की इस्मत लूटी।
मारने वाले आतताई
वे अपने ही पडोसी थे,
मित्रों का चोला पहन
एकनंबरी दोषी थे।
क्या बिगाड़ा था किसीका ?
कहते हैं-
अब सब सही हो गया है
चले चलो अपने 'खाते'
"तोबा तोबा नहीं चलेंगे"
बड़े बड़े बूढ़े कहते-
कश्मीर के साथ हमेशा
ऐसा ही होता आया है।
“कश्मीर कभी ठीक
नही् हो सकता”।
यह किसकी नज़र लगी
कश्मीर बिखर गया।
कश्मीर को सब भूल गये क्या
नहीं नहीं
कश्मीर फ़ाइल ने -
दिखादी असली सचाई !
कश्मीर की याद फिर से आई।
Tuesday, September 3, 2013
सूरदास--दाऊ बहुत खिझायौ।
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसों कहत मोल कौ लीन्हौ,
तू जसुमति कब जायौ॥
कहा कहौं इहिं रिस के मारे
खेलत हौं नहि जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता
को है तेरो तात॥
गोरे नंद जसोदा गोरी
तू कत स्याम सरीर।
चुटकी दै दै हंसत ग्वाल सब
सिखै देत बलबीर॥
तू मोहीं कों मारन सीखी
दाऊ कबहुं न खीझै॥
मोहन-मुख रिस की ये बातें
जसुमति सुनि-सुनि रीझै॥
सुनहु कान्ह बलभद्र चबा
जनमत ही कौ धूत।
सूर श्याम मोहिं गोधन की सौं
हौं माता तू पूत॥९॥
'सूरदास'-मेरो मन अनत ...
मेरो मन
अनत कहाँ सुख पावे।
जैसे उड़ि जहाज की पंछि,
फिरि जहाज पर आवै॥
मेरो मन अनत...
कमल-नैन को छाँड़ि महातम,
और देव को ध्यावै।मेरो मन अनत...
परम गंग को छाँड़ि पियसो,
दुरमति कूप खनावै॥मेरो मन अनत...
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो,
क्यों करील-फल खावै।
मेरो मन अनत...
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि,
छेरी कौन दुहावै॥
मेरो मन अनत...
सूरदास--मो सम कौन कुटिल...
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ,
ऐसौ नोनहरामी॥
भरि भरि उदर विषय कों धावौं,
जैसे सूकर ग्रामी।
हरिजन छांड़ि हरी-विमुखन की
निसदिन करत गुलामी॥
पापी कौन बड़ो है मोतें,
सब पतितन में नामी।
सूर, पतित कों ठौर कहां है,
सुनिए श्रीपति स्वामी॥
जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ,
ऐसौ नोनहरामी॥
भरि भरि उदर विषय कों धावौं,
जैसे सूकर ग्रामी।
हरिजन छांड़ि हरी-विमुखन की
निसदिन करत गुलामी॥
पापी कौन बड़ो है मोतें,
सब पतितन में नामी।
सूर, पतित कों ठौर कहां है,
सुनिए श्रीपति स्वामी॥
कबीर :गुरु बिन कौन बतावे बाट..
गुरु बिन कौन बतावे बाट,
बड़ा विकट यम घाट,
भ्रान्ति की पहाड़ी नदिया
बीच में, अहंकार की लाट
काम क्रोध दो परबत ठाढ़े ,
लोभ, चोर,संघात
मद मच्छर का मेह बरसत
माया पवन बहकात
कहत कबीर सुनो भई साधो,
शंकर आये घाट,
बड़ा विकट यम घाट।
गुरु बिन कौन बतावे बाट।
बड़ा विकट यम घाट,
भ्रान्ति की पहाड़ी नदिया
बीच में, अहंकार की लाट
काम क्रोध दो परबत ठाढ़े ,
लोभ, चोर,संघात
मद मच्छर का मेह बरसत
माया पवन बहकात
कहत कबीर सुनो भई साधो,
शंकर आये घाट,
बड़ा विकट यम घाट।
गुरु बिन कौन बतावे बाट।
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