सब कुछ ही लगता था अपना
कितनी यादें उड़तीं तिरतीं
बचपन की सखियों संग फिरती.
राजा रानी की कहानी
परियों के सपनों का मानी
धुंधले धुंधले से वे चित्र
कुछ स्पष्ट तो कुछ अस्पष्ट
बहते तिरते फहराते से
लहरों जैसे लहराते से
वह धुंधला सा प्यारा सपना
सब कुछ तो लगता था अपना
कितनी यादें खट्टी मीठी
कुछ कडवी तो कुछ थीं तीखीं
कंचे गीटों का वह खेल
उसकी ख़ुशी का न कोई मेल
मिट्टी के घरोंधे बनाना
उसे तोडना फिर से जोड़ना
रस्सी कूदने का वह सपना
सब कुछ ही लगता था अपना
सखियों के संग घर घर खेली
खेल खेल में गुडिया का ब्याह
रचा तो बिदाई में भी रो ली
बचपन का खेला वह पक्का
लगता था सब कुछ ही सच्चा
प्यारा सच्चा अपना सपना
था धुंधला पर था वह अपना
सब कुछ ही लगता था अपना...
शारदा मोंगा .
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