द्वंद विचारों के अनिर्णितअ-
दोराहों चौराहों पर मचल,
शोर मचता जब घनघोर,
दृढ़ संकल्पों की सडक ही
भटकन से हमें बचा कर,
पकड़ाती मंजिल की डोर,
ले जाती मंजिल की ओर.
इस सडक की चाल कभी
सीधी सी, कभी टेढ़ी सी,
मुडती, बलखाती कभी, तो-
भ्रम उपजाती नदिया सी,
फिर चौड़ी होकर हमसब को
ले समेट अपने जिगर में
माँ जैसी अंगुली पकडती,
दिखलाती मंजिल का छोर,
कभी घुप्प अंधियारी खोह में,
अंधी गली में गुम हो जाती,
उपजाती जब घोर निराशा,
दिखती न कोई भी ठोर,
दृढ़ संकल्पों की सडक ही-
ले जाती मंजिल की ओर.
आशा-निराशा के झूलों से,
घबरा कर डगर में ही,
छोड़ भागते हैं कुछ लोग,
अर्जुन जैसी टिकी आँख ही,
लक्ष्य पर सुदृढ़ संकल्प से,
पहुंचाती सफलता की ओर,
ले जाती मंजिल की ओर,
सूर्य उदय होता जीवन का,
बने सफल जगजीवन डोर,
दृढ़ संकल्पों की सडक ही,
पकड़ाती मंजिल की डोर,
ले जाती मंजिल की ओर,
ले जाती मंजिल की ओर.
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