शीत, बदली, सूरज का खेल,
छिपा छुप्पी और ढेलम ढेल.
ठंड को धुन कर शीत ने
कोहरे का लिहाफ बनाया,
ओरों को ओढा कर
खुद भी ओढ़ लिया.
सूरज ने
बादल की खिड़की से झाँका
कुछ गरम साँस छोड़ी ,
शीत ने लिहाफ हटाया,
मुस्कुरायी और फिर बोली
आओ प्रिय प्रीतम आजाओ,
मुझको अपने अंग लगाओ,
अब आ ही गये हो तो
कुछ गरम गरम हो जाय
मेरे हाथ ठिठुर रहे हैं
हम तुम मिल नाश्ता बनाएं,
मिल बैठ बतियाएंगे
कुछ मेरी तेरी सुनायेंगे,
बच्चे लिहाफ ओढ़े सोयें है.
उनके लिए कुछ बचायेंगे.
सुन बदली कैसे सह सकती,
विरह वेदना में थी जलती,
सूरज को चट फिर से घेरा
यों बदली सूरज का फेरा,
छिपा छुप्पी का यह यों खेल
चलता रहा ढेलम ढेल,
शीतरानी ठिठुरी, और बोली:
सत्यानाश हो तेरा बदली!
तुझे मेरा यह है श्राप
रोती रह दिन और रात.
श्राप ने अब रंग दिखाया
किया था जो, अब है पाया,
छम छम बदली रोने लगी
धरती आकाश को धोने लगी.
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