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Monday, January 11, 2010

'कोहरे' ने हलचल मचाई

'कोहरे' ने हलचल मचाई
जोश की गर्मी फैलाई

ठन्डे थर्राते हाथों में
कागज़ कलम यों थमाई

कई नज़ारे मिले दिखे यों
'सर्दी ने जठराग्नि' बढाई

'गर्म हलुए पर जी' ललचाया
'मौसम का मज़ा' था  आया

'कोहरे की चदरिया' ओढ़े
प्रकृति को 'घूँघट' करवाया

'धवल साडी' में लिपटा कर
'द्वार चौखट' पर खड्वाया

कभी 'दुशाला पहन' फुदकना
कभी 'नफरत की आग' बढायी

तो 'दिनमान ही घिरा' धुंध से
'पहचान अपनी खोता' जाये

'हवा बर्फीली'-और 'विषैली',
'नफरतों के साथ' है खेली

'सियासत है स्वार्थ'-का धंधा
नेताओं का खेल है गन्दा

'युवाओं में खुंदक बहुत है'
'गर्मजोशी चुक न पाए'-

'सृजन की डफली' बजेगी
'चुनौती  घातक है विशेष


 कुछ और भी नज्में बाकी हैं
मेरी कविता रहती  कुछ शेष...

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