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Wednesday, February 23, 2011

क्या खोया क्या पाया जग में...

जिंदगी के शोर, दुनियादारी की आपाधापी, रिश्ते नातों की गलियों और सोच के रास्ते के नुक्कड़ पर इन्सान जब अकेला हो जाता है तो कवि कागज़ पर अपना घर बना लेता है. और जब सुनाने सुनाने वाले एक हो जाते हैं- इस संवेदनशील इन्सान के शब्द कुछ इस तरह बोल उठते हैं :-

क्या खोया क्या पाया जग में,
मिलते और बिछड़ते डग में,
मुझे किसी से नहीं शिकायत,
यद्यपि छला गया पग पग में,
एक दृष्टि बीती पर डाली,
यादों की पोटली टटोले,
अपने ही मन से कुछ बोले...२ times .

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी,
जीवन एक रात कहानी,
पर तन की अपनी सीमायें,
यद्यपि सौ शर्तों दीवानी,
इतना काफी है अंतिम,
दस्तक पर खुद ही दरवाज़ा खोले,
अपने ही मन से कुछ बोले...२ times

जन्म मरण का अविरत फेरा,
जीवन बंजारों का डेरा,
आज यहाँ कल कहाँ पहुँच है,
कौन जानता अधिक सवेरा,
अँधियारा आकाश में सिमित,
प्राणों के पंखो को तौले,
अपने ही मन से कुछ बोले...
अपने ही मन से कुछ बोले...२ times

द्वारा--श्री अटल बिहारी बाजपेयी




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